संपादकीय

हाड़ोती की लोक संस्कृति का इंद्रधनुष

-डॉ.प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
सतरंगी संस्कृति की राजस्थान की लोक परंपराओं में हाड़ोती की संस्कृति भी इंद्रधनुषी रंगों में नजर आती हैं। गर्व है कि बूंदी -कोटा शैली के चित्र देश में ही नहीं विदेशों के संग्रहालय में प्रदर्शित हैं। अंचल की शेषाशयी विष्णु( बाडोली) और झल्लरीवादक ( दरा) की मूर्तिकला का विदेशों की मूर्तिकला प्रदर्शनी में प्रदर्शन हो चुका है। अंचल के मयूर नृत्य, चकरी नृत्य, शंकरिया नृत्य नाटिका, भवाई नृत्य, बिन्दौरी नृत्य ने देशव्यापी ही नहीं विश्व स्तरीय पहचान बना कर हाड़ोती का नाम रोशन किया है। प्रसिद्ध हस्तशिल्प कोटा डोरिया साड़ी ने विश्व स्तरीय पहचान बनाई है।
अर्वाचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक संस्कृति का केनवास लोक संस्कृति के रंगों में रंग बिरंगा नजर आता है। आदिकाल के आदिमानव द्वारा चट्टानी शैलाश्रयों में बनाए गए शैल चित्र संस्कृति के सबसे प्राचीन निशान हमें कोटा,बूंदी, भीलवाड़ा और बारां जिलों में देखने को मिलते हैं। सबसे लंबी राक पेंटिंग साइट हाड़ोती में पाई जाती है। नमाना और केशोरायपाटन के टीलों से प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के प्राप्त अवशेषों के दर्शन कोटा के राजकीय संग्रहालय की प्राक – पुरातत्व दीर्घा में किए जा सकते हैं।
हाथियों पर बैठ कर राजा द्वारा आम जन से होली खेलना, महलों में होली, कृष्ण के साथ होली का रास, नावड़े की गंगौर की सवारी, दशहरे पर नो दिन की रियासत कालीन सवारी, रानियों द्वारा दीपावली पर फूलझड़ी चलाने का आनंद, सावन में बागों में झूले झूलना, गायन – वादन और नृत्य की परंपरा आदि संस्कृति के रंग हमें हाड़ोती के महलों और हवेलियों के भीतिचित्रों और संग्रहालयों की पेंटिंग्स में देखने को मिलते हैं। चित्रों के सात – साथ हमारे प्राचीन मंदिरों की मूर्तिकला में गायन, वादन और नृत्य की मूर्तियां समाज में इनके प्रचलन होने के सबल प्रमाण हैं।
संकृति के इन ऐतिहासिक दस्तावेजों के साथ – साथ हाड़ोती के लोक कलाकार अंचल की लोक परंपराओं को जीवित बनाया हुए हैं। अलगोजा वाद्य की तान पर लोक कलाकार जब लोकदेवता तेजाजी की के गीतों की तान छेड़ते हैं तो देखने वाले भी झूम उठते हैं। कोटा के बाबा हरिहर और गोविंद गंधर्व जेसे कुशल और सिद्धहस्त कलाकार जब भवाई नृत्य करते हैं तो नृत्य की चमत्कृत कर देने वाली प्रस्तुतियों से दर्शक आश्चर्चकित हो जाते हैं। कोटा के ही बिंदौरी नृत्य के कलाकार जब दिखावटी सजी – धजी घोड़ी के बीच खड़े होकर कच्छी घोड़ी नृत्य करते हैं तो जादुई सम्मोहन उत्पन्न कर देते हैं। नृत्य के साथ बजने वाले वाद्यों के सुरों पर गायन के साथ यह नृत्य कलाकार आज पूरे राजस्थान में अपनी पहचान बना चुके हैं।
होली पर बारां जिले में आदिवासी सहरिया बहुत ही मधुर धुन में अपने ही बोली में पन्द्रह दिनों तक फाग और रसिया गाते हैं जो बहुत ही कर्णप्रिय होता है। सहरियाओं के अन्य प्रसिद्ध गीतों में लांगुरिया, डोला, खांडियाजी हैं। ढोलकी, नगाड़ी और कुन्डी वाद्य संगीत के लिये प्रयोग में लाये जाते हैं। वहीं शाहबाद में इनकी स्वांग नृत्य नाटिका “शंकरिया” देश – दुनिया में लोकप्रिय हो गई है।
इनकी संस्कृति के रंगों को देखना हो तो “सहरियों का कुंभ” कहा जाने वाला सीताबाड़ी मेला अवश्य देखना चाहिए। यह मेला प्रति वर्ष ज्येष्ठ माह में आयोजित किया जाता हैं। आज भी ” गोदने ” गुदवाने के प्रति इनका प्रेम मेले में देखा जा सकता है। इनका मानना है कि इससे जीवन में प्रसन्नता रहती है। बिच्छु, सांप, मोर, मछली चारों हाथ पैरों पर गुदाये जाते हैं। ठोड़ी, गाल और आंखों के तरफ छोटी-छोटी बिन्दु गुदाये जाते हैं।
बारां जिले में ही छबड़ा तहसील के चांचौड़ा की कंजर जाति की बालिकाओं का “चकरी नृत्य” जिस तेज गति से किया जाता है वह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। इसमें उनका भारी भरकम अस्सी कली का घाघरा और चमकीली पोशाक नृत्य में चार चांद लगा देता है।
कोटा के कलाकार अलका और अंबिका ” मयूर नृत्य” की पारंगत कलाकार हैं। संजय और उनका दल ” दस्ताना कठपुतली” के एक मात्र कलाकार हैं। हाड़ौती में लावनी, रसिया और निहालदे मुख्य लोकगीत हैं। मेलों एव उत्सवों के अवसर पर भैरूजी, तेजाजी, सावन, तीज, होली, गणगौर, बालाजी का मेला तथा विभिन्न रस्मों जच्चा, जंवाई आदि के लिये गाये जाने वाले गीत भी लोकप्रिय हैं। गायन के साथ ढोलक, तबला, सितारा, पंजीरा, अलगोजा, डफ, चंग, रायपुरपुरी, नगाड़ा, चंग, ढपली एवं इकतारा जैसे वाद्य बजाए जाते हैं। घूमर नृत्य भी यहां किया जाता है।
होली पर बारां जिले में किशनगंज का फूलडोल उत्सव, कोटा जिले में सांगोद का न्हान उत्सव लोक संस्कृति के रंगों में रंगे हैं।फूलडोल उत्सव स्वंगों कला के लिए प्रसिद्ध है।
सांगोद न्हाण का प्रचलन 9 वीं शताब्दी से माना जाता है। इसमें न रंग होता है न पानी और न गुलाल। होली के माहौल में रमे ग्रामवासी विचित्रा वेशभूषा से सज्जित अखाड़े निकालते हैं। विभिन्न देवी देवताओं की पूजा के बाद ब्रम्हाणी माता की पूजा होती है, रातभर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। वीरवर सांगा गुर्जर की पुण्य स्मृति में प्रथम बार सांगोद में न्हाण प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1601 में पहली बार न्हाण का खेल कोटा में कराया गया। 1871 ई. में सांगोद में शाही लवाजमे में बादशाहत की सवारी निकाली जाने लगी। सम्वत् 1912 से दो न्हाण झण्डा उपाड़ और रंग-पानी मनाये जाने लगे। इन उत्सवों में अंचल की कलाओं और संस्कृति के दर्शन होते हैं। जो लोग लोक संस्कृति में रुचि रखते हैं उन्हें इन दोनों उत्सवों को जरूर देखना चाहिए।
कोटा के वल्लभ सम्प्रदाय के धर्माचार्य को यहां के राजाओं ने गुरूपद प्रदान किया। इस अवसर पर होली के दिन वल्लभ सम्प्रदाय के सात स्वरूप यहां पधारे थे। इसी से फाल्गुन में मंदिर का माहौल बृज जैसा रहता है। रंग और गुलाल का यह गुलाबी त्यौहार गरीब-अमीर को समानता के धरातल पर लाता है। होली पर सार्वजनिक रंगोली की अनुपम छटा कोटा की अपनी परंपरा है।
दीपावली एवं इससे जुड़ा गोवर्धन पूजा पर्व असीम उल्लासपूर्वक मनाये जाते हैं। घरों में माण्डने सजाने की परम्परा आज भी प्रचलित हैं। खास कर ग्रामीण क्षेत्रों में पशु पूजा गाय-बैलों की पूजा की विशेष प्रथा है। बैंलो के शरीर पर कलात्मक मेहंदी लगाकर साज-श्रृंगार कर दुल्हा बना कर हीड गीत गायन के साथ पूजा की जाती है। गावों में बैल-गाय पूजा का दृश्य देखते ही बनता हैं जो इस क्षेत्र की अपनी अनूठी विशेषता हैं। दीपावली पर रात के शुभ मुहूर्त से लक्ष्मी-गणेश का पूजन होता है। बच्चे-बड़े सभी पटाखे चलाते हैं। एक-दूसरे को शुभकामना देने एवं परिचित के यहां मिठाई ले जाने की परम्परा हैं।
गणगौर पर किशोरियों के लिए मनवांछित वर प्राप्ति हेतु तथा स्त्रिायां सुहाग और आसक्ति की मनोकामना के लिए घर-घर में ईसर और गौरी की पूजा बड़ी सज – धज के साथ मनोयोग से करती हैं। गणगौर की परम्परा भी अनेक गावों और कस्बों में देखने को मिलती है। रियासत काल में बूंदी में नावों पर गणगौर माता की सवारी का आयोजन किया जाता था। एक बार नाव पानी में डूब गई तब से ” राणा ले डूबियों गणगौर” प्रचलित हो कर गणगौर पर्व बंद कर दिया गया। काफी समय बाद फिर से शुरू हुआ।
शिवरात्रि, फाल्गुन कृष्णा त्रायोदशी को पूरी हाड़ोती में शिवरात्रि का पवित्र पर्व मनाया जाता है। इस अवसर पर शिवालयदीपमालाओं से आलोकित किये जाते हैं। चारों ओर ‘‘ नमः शिवाय’’ से वातावरण गुंजित हो उठता हैं। नीलकण्ठ, गेपरनाथ, कंसुआ महादेव, गेपरनाथ, चंद्रेसल महादेव आदि के मंदिरों पर विशेष कार्यक्रमों के साथ मेले भरते हैं। चारचौमा की सोरती मशहूर है।
मौहर्रम, मुसलमान ईदुल फितर (मिठी ईद), ईदुलजुहा (बकरा ईद), मौहर्रम एवं बारावफात के पर्व प्रमुख रूप से मनाते हैं। मुस्लिमों के नये साल की शुरूआत का पहला महीना मौहर्रम हैं और इसी महीन के 10 तारीख को मैदाने करबला में हजरत मोहम्मद के दामाद हजरत अली यजीद से संघर्ष के करते हुए शहीद हुए थे और इसी दिन मुस्लिम भाई प्रतीकात्मक रूप से मौहर्रम निकालकर लांगें (अपने शरीर पर तलवार घुसा कर) जुलूस निकालते हैं और अरब का विशेष व्यंजन हलीम सभी प्रकार के अन्नों को मिलाकर बनाया जाता है तथा एक-दूसरे को खिलाते हैं। इस अवसर पर छबीलें लगाकर लोगों की प्यास बुझाने के लिए शरबत पिलाया जाता है।
ईदुल फितर (मीठी ईद) : ईदुलफितर भूख, प्यास, त्याग, तपस्या और ईबादत के विशेष प्रशिक्षण के एक माह रमजान का गुजारने के बाद ईद के महीने के पहले दिन ईद का जश्न मनाया जाता है और भाई-चारा व सदभावना के प्रतीक इस त्यौहार में लोग एक-दूसरे के गले मिलकर खुशियां बांटते हैं।

ईदुलजुहा (बकरा ईद) : ईदुलजुहा (बकरा ईद) ईश्वर के नाम पर अपना सब कुछ कुर्बान कर देने की सीख देने वाला यह पर्व बकरा ईद के रूप में मनाया जाता है। इस त्यौहार की अहमियत इसलिए हैं कि इसी माह में मक्का-मदीने में विश्व के मुसलमान पहुंचकर हज़ करते हैं।

बारावफात : बारावफात मुसलमानों के अंतिम पैगम्बर हजरत मोहम्मद साहब का जन्म और मृत्यु इसी दिन होने के कारण इस दिन मुसलमान त्यौहार के रूप में मनाते हैं और इस्लाम के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने के लिए जुलूस आदि का आयोजन करते हैं।
तेजा दशमी, नवरात्रि, जन्माष्टमी, श्रावणी तीज, नाग पंचमी, अनन्त चतुर्दशी, गणेश चतुर्थी,रक्षा बन्धन, महावीर, गुरूनानक, गुरू गोविन्द सिंह आदि की जयन्तियां, बैशाखी, चेटीचण्ड, क्रिसमस-डे, एवं राष्ट्रीय पर्व यहां धूमधाम से मनाये जाते हैं।
कोटा का दशहरा, बारां का डोल,सीताबाड़ी, बूंदी का कजली तीज, केशोरायपाटन और चंद्रभागा के कार्तिक माह के मेलों सहित बूंदी उत्सव और कोटा का चंबल उत्सव अंचल के प्रमुख सांस्कृतिक आयोजन हैं। खुशी का प्रसंग है कि इन आयोजनों में धीरे – धीरे विदेशी पावणों की संख्या भी बढ़ने लगी है।
हाड़ोती में अनेक हस्तशिल्प कलाएं कला-संस्कृति की पहचान हैं। कोटा के समीप कैथून में बुनकरों द्वारा हथकरघे पर बुनी जाने वाली कोटा साड़ी प्रसिद्ध है। किशोरपुरा दरवाजे के समीप निवास करने वाले अखलेश बेकरी कांच की जडाई से डाक – पन्नी की कला के सिद्धहस्त कलाकार हैं जिनकी कला के कद्रदान इनकी क्लाकृतियों को विदेश ले जाते हैं। पूर्वजों की इस कला को जीवित रखने के लिए केवल कलाकृतियों तक सीमित न रखते हुए आधुनिक रूप प्रदान करने के सफल प्रयोग किए हैं। वस्त्रों की छपाई, रंगाई, लाख के चूड़े – चूड़ियां एवं बारां जिले में मंगरोल के हाथ से बुने टेरी खादी के वस्त्र, बूंदी की खुशबूदार रजाईयां आदि कई अन्य हस्तशिल्प भी प्रमुख हैं।

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