संपादकीय

मुरझाए फूल खिल उठे…..

(संस्मरण)

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल, कोटा
जीवन की डगर पर चलते चलते रास्ते अपने आप आसान हो जाते हैं। मां के पेट से कोई सीख कर नहीं आता। धेर्य, इच्छा शक्ति, लग्न,परिश्रम से कर्म कर अपना भाग्य स्वयं लिखना होता हैं। लोगों की निनदा, जलन,
उल्हानें, कुड़न, का सामना भी करना होता है।
’ इन सब के बीच रास्ता बना कर सकारात्मक रुख रखते हुए कार्य करने वालों को सम्मान भी कम नहीं मिलता। करीब साढे तीन दशक तक सरकारी विभाग में काम करने पर ऐसा ही महसूस करते हुए याद हो आता है वह दिन जब मैंने 1 मार्च 1979 को कोटा के सूचना केंद्र में सहायक जन सम्पर्क अधिकारी पद पर ज्वॉइन किया और जीवन के नए मोड़ पर कदम रखा। मन में सरकारी नोकरी शुरू करने की खुशी, उत्साह और आजीविका की सुरक्षा का भाव था वहीं नया काम, नया माहौल, काम करपाएंगे या नहीं इसका भय और सीखने की उत्कंठा भी।
’नई पाठशाला के पहले गुरु बने गुरुश्रेष्ठ श्री नटवर त्रिपाठी जी। परीक्षा तो पास करनी थी, जीवन का महत्वपूर्ण सवाल जो था। कुछ दिन काम को देखने, समझने और धीरे-धीरे शुरू करने की उंहा पोह में बीत गए। एक दिन त्रिपाठी जी ने मेरा परिचय श्रीकरनी नगर विकास समिति से कराया। कोटड़ी गोर्धनपुरा में दो कमरों में संचालित यह समिति निराश्रित बच्चों के जीवन को संवार ने का काम करती थी। जब वे बच्चों से बातें कर रहे थे तो करीब आठ साल के एक बच्चे मृत्युंजय की बातों ने मुझे भी प्रभावित किया। समिति के स्व. महावीर चंद भंडारी और संयोजिका श्रीमती प्रसन्ना भंडारी जी से भी मेरा परिचय हुआ।
एक घंटे बाद हम लोट आए। उन्होंने बच्चों पर एक आलेख लिखा जो अगले दिन अखबारों में छपा।
’ जब मैंने उसे पढ़ा और लेखन कला को देखा तो मेरे मन में भी केवल मृत्युंजय पर कुछ लिखने का विचार मैंने उन्हें बताया। वह खुश थे कि मुझे प्रेरणा मिली सो कहा जरूर लिखो।
उनका आशीर्वाद लेकर मैं मृत्युंजय से मिलने चला गया। काफी देर तक उससे बात की और उसका एक फोटो लेकर सूचना केंद्र आ गया।
’ पहली बार लिख रहा था। विचारों की लहरें चल रही थी। लिखता फिर मिटा देता। कई बार ऐसा हुआ, नहीं बन पाया तो छोड़ दिया कि कल करेंगे। नहीं लिख पाने की दिन भर बेचौनी रही। दिमाग उधर ही लगा रहा। शाम को घर गया तो चाय पी कर फिर से प्रयास करने लगा। समय की बात कहो थोड़े से समय में अच्छे अच्छे विचार आते गए और मैं लिखता गया। जब पूरा हो गया तो कई बार पढ़ा और कुछ संशोधन भी करता रहा।
’ अगले दिन मुझे इस सवाल का जवाब मिलना था सो डरते डरते लिखा हुआ गुरुदेव के सामने रखा। अच्छा तुमने लिख लिया, बैठो देखते हैं। उन्होंने जब उसे तीसरी बार पढ़ा तो मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा, घबराहट सी होने लगी कि क्या है कुछ भी सही नहीं है जो बार – बार पढ़ रहे हैं। अचानक उनके मुंह से निकला एक्सीलेंट , बहुत ही जबरदस्त लिखा है। शब्दों का चयन, शैली और प्रस्तुतिकरण एक दम परफेक्ट है। कहा निरन्तर प्रयास करोगे तो एक दिन अच्छे लेखकों में पहचान बना सकते हो। इसे अपने नाम से जारी करो।
’ अब तो अगली दिन के इंतजार में पूरी रात गुजर गई, पहली परीक्षा का परिणाम जो देखना था। परिणाम देखा तो गदगद हो उठा ‘मुझाए फूल खिल उठे’ शीर्षक से मेरा पहला फीचर कोटा के सब अखबारों में छपा था। बार-बार पढ़ा, खुद के लिखे पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऑफिस पहुंच कर गुरु के चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त किया। वह भी बहुत प्रफुल्लित थे, बोले मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
’ होंसला बढ़ा मै लिखता गया, कभी-कभी वे कुछ सुधार करते रहे। कुछ अंतराल पर दो-तीन बार मृत्युंजय पर फिर लिखा। उसे भी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली और वह आज डॉक्टर बन गया।
’ यह गुरुदेव त्रिपाठी जी के आशीर्वाद, प्रेम, स्नेह और मार्ग दर्शन और मृत्युंजय पर लिखे गए फीचर का ही परिणाम है कि मेरे लेखन को धीरे-धीरे पहले राज्य में फिर राष्ट्रीय अखबारों, पत्रिकाओं में स्थान मिलता गया। उस बात को बीते आज 43 साल की लेखन यात्रा में 10 हज़ार से
अधिक फीचर, लेख, रिपोर्ताज, स्तम्भ, संपादकीय यात्रा वृतांत प्रकाशित हो चुके हैं। यही नहीं लिखने का रुझान किताबों की ओर हुआ तो 40 से अधिक पुस्तकें भी मेरी पूंजी हैं। गुरुश्रेष्ठ त्रिपाठी जी के आशीर्वाद और सतत परिश्रम व लग्न का ही परिणाम है कि स्थापित लेखकों में मुकाम बना पाया।

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