धर्मसैर सपाटा

प्राचीन शांतिनाथ जैन मंदिर, झालरापाटन – आस्था और पर्यटन का केंद्र

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
झालरापाटन नगर के मध्य में सूर्य मंदिर के समीप ही 10वीं शताब्दी का पूर्वाभिमुख शांतिनाथ जैन मंदिर जैन धर्मावलंबियों का प्रमुख आस्था केन्द्र है। बाहर मंदिर का आधुनिक कलात्मक प्रवेश तोरण द्वार बना है। इसे देख कर अनुमान ही नहीं लगा सकते कि अंदर मंदिर परिसर में कोई प्राचीन मंदिर भी होगा जो अत्यंत कलात्मक होगा। एक छोटे से द्वार से होकर मंदिर का विशाल परिसर दिखाई देता है। परिसर के मध्य में भव्य कलात्मक मंदिर निर्मित है और चारों तरफ बरामदे बने हुए हैं।
करीब 92 फुट ऊंचा शिखर बंद मंदिर के गर्भगृह से पहले भव्य और काफी ऊंचा सभा मंडप बना है। सभा मंडप से पूर्व मुख्य प्रवेश द्वार बना है। प्रवेश द्वार, सभा मंडप और गर्भगृह सभी पर चप्पे – चप्पे पर मूर्तियों और अन्य अलंकरणों का उत्कीर्ण मंदिर की विशेषता है। सभी अलंकरण प्राचीन स्वरूप में इतने आकर्षक हैं कि दर्शक अपलक देखते रह जाएं। कहीं – कहीं ये रंग बिरंगे भी दिखाई देते है जिनके रंग फीके पड़ चुके हैं। सभा मंडप में भी कई जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। गर्भगृह कुछ गहरा है जिसमें सामने की ओर एक वेदी बना कर शांतिनाथ जी की लगभग 12.5 फुट ऊंची खड्गासन अगवाह्न मोहक प्रतिमा की चमक देख कर मन श्रद्धांवत् झुक जाता है। प्रतिमा के ऊपर एक छत्र भी बना है। गर्भगृह बहुत ही सुंदर और धार्मिक है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर दोनों और निर्मित सूंड उठाए श्वेत विशालकाय गज प्रतिमाएं दर्शनीय है। बताया जाता है इन्हें श्वेत कोडियों को पीस कर बनाया गया है जिस से इनकी चमक वर्षो बाद भी ज्यों की तो बनी हुई है। मंदिर का अग्रभाग पिरामिड नुमा दिखाई देता है।
मंदिर की परिक्रमा में नजर आता है मंदिर का अद्भुत, आश्चर्जनक मूर्ति और स्थापत्य शिल्प का जादू। इस मंदिर और सूर्य मंदिर की स्थापत्य कला में गजब की समानता है। मंदिर निर्माण के वो सारे तत्व मौजूद हैं जो 10वीं सदी के मंदिरों में बनाए जाते रहे हैं। जंघा भाग से लेकर शिखर तक छोटी – बड़ी विभिन्न मूर्तियों का अजायबघर हैं मंदिर की दीवारें। हिंदू देवी – देववताओं की मूर्तियां भी यहां उत्कीर्ण की गई हैं। लाल बलुआ पत्थर से निर्मित इस प्राचीन मंदिर के शिल्प को शायद ही कोई सम्पूर्ण रूप से देख पाए, इतना सघन है यहां का शिल्प। निश्चित ही मंदिर न केवल जैन धर्म की आस्था का श्रद्धा केंद्र है वरन पर्यटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
परिसर के बरामदों में पार्श्वनाथ और अन्य तीर्थंकरों की करीब 10 सजावटी और आकर्षक वेदियां नई संरचनाएं हैं। इन वेदियों को अधिकतर चांदी और पीतल धातु से बनाया गया है जो देखने में अत्यंत लुभावनी हैं। सुंदर वेदियों का निर्माण पिछले सालों में दिगंबर जैन समाज के व्यापारिक घरानों द्वारा किया गया है। इनके ऊपर सफेद शिखर मंदिर परिसर की शोभा बढ़ाते हैं। बरामदों में कुछ जगह दीवारों पर भारत के महत्वपूर्ण जैन तीर्थो की पेंटिंग भी बनाई गई हैं। मंदिर के भीतर भट्टारक जी की गद्दी है। कई विख्यात जैन मुनि यहां मंदिर की भव्यता को देखने आ चुके हैं।
ऐतिहासिक रूप से यहां 1088 ई.का लेख पाया गया है जिसे मूर्ति की स्थापना काल का माना जाता है और इसे झालावाड़ रियासत के पुरस्त्ववेत्ता प. गोपाललाल व्यास ने पढ़ा था। कर्नल जेम्स टॉड ने भी अपनी यात्रा के दौरान एक पाषाण अभिलेख का जिक्र किया है जिसमें ज्येष्ठ तृतीय संवत 1003 का अंकन है। मंदिर के एक स्तंभ पर 1797 ई. का एक लेख के अनुसार इस वर्ष ग्वालियर महाराज भट्टारक नरभूषण चतुर्मास के लिए यहां आए थे। मंदिर में मध्ययुगीन मूर्तियां जैन धर्म के मूलसंघ, सरस्वती गच्छ, भट्टारक सकलकीर्ति एवं उनके शिष्यों द्वारा प्रतिष्ठित हैं।
एक प्रबंध समिति द्वारा मंदिर व्यवस्थाओं और गतिविधियों का संचालन किया जाता है। यहां आने वालों को ठहरने के लिए समीप ही मंदिर द्वारा संचालित एक अच्छी धर्मशाला है। जैन धर्म का यह प्राचीन मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक भी है।

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