धर्मसैर सपाटा

प्रकृति और धर्म का संगम स्थल सीताबाड़ी और सहरियों का कुंभ

-डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
पर्यटन लेखक (कोटा, राजस्थान
)
लक्ष्मण मंदिर और कुंड, लव – कुश मंदिर, सीता कुटी, बाल्मिकी मंदिर आदि रामायण कालीन चिन्ह होने से लोक विश्वास प्रचलित है कि बारां जिले का सीताबाड़ी स्थल वह स्थान है जहां भगवान राम द्वारा सीता का परित्याग करने के बाद निर्वसन काल में सीता बाल्मिकी आश्रम में यहां रही थी। लव – कुश का जन्म और श्रीराम चंद्र जी तथा लव और कुश के बीच युद्ध भी यही हुआ था। इस विश्वास के कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलते हैं। किसी भी इतिहासकार ने इन तथ्यों की पुष्टि नहीं की है। दूसरी ओर भग्नावशेषों को देखकर अनुमान लगाया गया है कि यह स्थल बारहवीं, तेरहवीं शताब्दी में स्थापित हुआ होगा।
किसी ने सही कहा है कि भारत की धरती के कण – कण में देव बसते हैं। ऐसा ही एक स्थान भारत के ऐतिहासिक राज्य राजस्थान के बांरा जिले की शाहबाद तहसील के केलवाड़ा गाँव के पास सीताबाड़ी नामक एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थान व तीर्थ है। वर्ष भर श्रद्धालु और पर्यटक यहां सीताबाड़ी के मंदिर के दर्शन करने आते। बांरा से सीताबाड़ी की दूरी लगभग 45 किलोमीटर तथा कोटा से 110 किलोमीटर दूरी पर स्थित है।
सीताबाड़ी प्राकृतिक सौंदर्य के साथ आम्र वृक्ष कुंज घिरा एक धार्मिक स्थल है जहां कई मंदिर और जल कुंड बने हैं। पिछले कुछ वर्षों में यहां एक भव्य नए मंदिर का निर्माण भी कराया गया है। यह स्थान यहां लगने वाले प्रसिद्ध वार्षिक ” सीताबाड़ी मेले” के लिए भी जाना जाता है। रामायण के पात्रों , मंदिरों और जल कुंडों से हाड़ोती क्षेत्र में इस स्थान का विशेष महत्व है।
मुख्य सड़क से लगे केलवाड़ा गाँव से ही घने हरे- भरे पेडों का झुड़ दिखाई देने लगता है। बसों और कारों आदि द्वारा वहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां पहुंच कर यात्री सबसे पहले लक्ष्मण कुंड पहुचते है। लक्ष्मण कुंड लगभग 20-25 मीटर का वर्गाकार पानी से भरा कुण्ड है । इसमें साल के बारह महीने पानी रहता है। कुंड के तीनों ओर तीन तिवारियां बनी हैं और पूर्व की ओर लक्ष्मण जी का आकर्षक मंदिर है। जिसके गोल गुम्बद की प्राचीन नक्काशी देखते ही बनती है। गुम्बद के अगले भाग पर दो सिंह प्रतिमाएं हैं। मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मण जी की खड़ी मानवाकार प्रतिमा है। यह प्रतिमा वस्त्राभूषण से सुसज्जित है और हाथ में तीर कमान लिए सजीव सी प्रतीत होती है।
किवदंती है कि सीता जी के अरण्य प्रवास काल में उनके स्नान के लिए लक्ष्मण जी ने ही यहां पाताल गंगा को प्रकट किया था। पहले यह धारा निर्बाध रूप से अस्त व्यस्त बहा करती थी कालांतर मे स्थायी रूप से संचित रहने के लिए इसे जल कुंड का रूप दे दिया गया है। पर्व और यहां लगने वाले मेले आदि के अवसरों पर हजारों श्रृद्धालु यहां कुंड में स्नान कर दर्शन करते हैं है। लोगों का मानना है कि लक्ष्मण कुंड का पानी पीने से रोगों से छुटकारा मिलता है। इस कुंड कपड़े आदि धोना निषेध है।
सीताबाड़ी को जल कुंडों की वाटिका भी कहा जाए तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। छोटे- बड़े यहां कुल मिलाकर सात कुंड हैं। जिनमें से तीन सीता कुंड, सूरज कुंड और लक्ष्मण कुंड प्रधान कुंड माने जाते हैं। इनके अलावा राम कुंड, लव,- कुश कुंड, वाल्मीकि कुंड आदि भी महत्व के हैं।
सूरज कुंड यहां का सर्वोत्तम मनोहारी स्वच्छ जल से भरा हुआ संगमरमरी धरातल वाला कांच के चौकोर कटोरे सा सूरज कुंड है। जिसमें एक साथ 15-20 स्नाननार्थियों का समूह स्नान कर सकता है। इस कुंड के चारों ओर तिबारियां है और एक तिबारी में शिव प्रतिमा स्थापित है। कुछ लोगों का कहना है कि यहां बारह महीने एक जीवित सर्प चक्कर लगाया करता है। मगर वह किसी को नुकसान नहीं पहुंचता। मुख्य कुंड के बाहर आते ही फिर दूसरा फिर तीसरा कुंड बना है जिनमें स्नान का क्रम चलता रहता है। कार्तिक पूर्णिमा के पर्व पर इस कुंड के पानी की निर्मलता में कोई अंतर नहीं आता।
मई-जून में यहां लगने वाला सीताबाड़ी मेला कई मायने में महत्वपूर्ण है। इस मेले को आदिवासी सहरिया बाहुल्य क्षेत्र होने से वे इसे ” आदिवासी सहरियाें का कुंभ” भी कहते हैं। वे इस अवसर पर बच्चों के मुंडन संस्कार और मृतक व्यक्तियों को पिंड दान भी करते हैं। मेले में आदिवासी युवक युवतियां अपना जीवन साथी भी चुनती है। वे अपने अंगों पर गोदना गुदाते देखे जाते हैं। सहरीय संस्कृति को नजदीक से देखने का एक अच्छा मौका प्रदान करता है यह मेला। आचार आदि वनोपज के के साथ – साथ पशुओं और खेती के उपयोग के सभी समान, महिलाओं के श्रृंगार के समान और बच्चों के मनोरंजन के आइटम की खूब बिक्री होती है। मेले में मनोरंजन के लिए झूले और खानेपीने की दुकानें आदि सजते हैं। यह मेला ग्राम पंचायत द्वारा आयोजित किया जाता है। मेले में सुरक्षा और आवश्यक जन सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती हैं। हाड़ोती भर से लोग इस मेले को देखने आते हैं।
जानकारी के लिए बतादें केलवाड़ा में 17वीं – 18वीं शताब्दी का एक छोटा सा साधारण किला भी है। राजा जलीमसिंह के समय इसका जीर्णीधार करवाया गया था। किले में एक मंदिर, मजार और कचहरी भवन भी बने हैं। यह किला पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित स्मारक है।

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