सैर सपाटा

खजुराहो के मंदिरों के दर्शन के बिना अधूरा है भारत भ्रमण

( झांसी, ओरछा और खजुराहो यात्रा )

-डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
पर्यटन लेखक, कोटा (राजस्थान)

वह दिन आज भी यदा-कदा मेरे स्मृति पटल पर तैर जाता है जब अपने साडू भाई सुकेश तायल, साले मनोज और मित्र घनश्याम वर्मा के साथ खजुराहो के दर्शन करने के लिए रात्रि में कोटा-बीना ट्रेन से रवाना हो कर सुबह बीना स्टेशन पर पहुंचे। झांसी जाने वाली ट्रेन आधा घंटे के अंतराल पर बीना स्टेशन पर पहुंच गई। इसी बीच हमने प्लेटफार्म पर ही अल्पाहार ले लिया था। बीना से ट्रेन में सवार हो कर कुछ ही समय में हम झांसी स्टेशन पर पहुंच गए। स्टेशन से बाहर आकर हमने ऑटो किया और पर्यटन विभाग के विश्राम गृह चले गए। वहां हमें कमरे और डोरमेट्री दिखाए गए। हमें हमारे बजट में डोरमेट्री साफ सुथरी और अच्छी लगी और हम इसी में ठहर गए।
स्नान आदि से निवृत हो कर हम ऑटो से झांसी के ऐतिहासिक किले के सामने पहुंच गए। किले के अन्दर प्रवेश किया तो अन्दर काफी भीड़ थी। हम भी टिकट ले कर इस भीड़ का हिस्सा बन गए। किले के मुख्य द्वार से अन्दर प्रवेश करते ही बाईं तरफ किले एवं झाँसी की रानी के बारे सूचनाएं देते बोर्ड लगे हैं तो दाईं तरफ किले का सबसे बड़ा आकर्षण कड़क बिजली तोप रखी थी। तोप के ऊपर हाथ रखकर या तोप से सटकर या फिर किसी अन्य स्टाइल में तोप के साथ फोटाे खींचने या खिंचवाने वालों की होड़ लगी थी। साथ ही एक पट्ट पर बचपन से पढ़ते आ रहे सुभद्रा कुमारी चौहान की कालजयी कविता ” सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी “अंकित है। इससे आगे चढ़ाई वाले दायीं और बायीं तरफ दो रास्ते हो जाते हैं। हम लोग बाईं ओर के रास्ते पर चल पड़े। कुछ ही आगे गुलाम गौस खाँ (मुख्य तोपची),खुदाबख्श (अश्वारोही) और मोतीबाई (महिला तोपची) की संयुक्त रूप से समाधियां बनी हुई हैं। इसके
आगे पंचमहल,कुदान स्थल और ध्वज स्थल की तरफ रास्ता जाता है। यह रास्ता किले की प्राचीर के साथ–साथ है। हम सीढ़ियों से किले की प्राचीर पर चढ़ गए। दूर से ही प्राचीर पर फहराता तिरंगा दिखाई पड़ रहा था। थोड़ा ही आगे कुदान स्थल है। किले की प्राचीर के साथ–साथ आगे बढ़ने पर कोने वाली जगह पर,जहाँ दीवार दाहिने या पूरब की तरफ मुड़ती है,नीचे की तरफ सीढ़ियां उतरती हैं। यहाँ नीचे उतरने पर काल–कोठरी,राजा गंगाधर राव के समय प्रयुक्त होने वाला फाँसी घर,रानी का आमोद बाग तथा शिव मन्दिर स्थित हैं। किले में मैंने सब से कोतुक से देखा फांसी देने का स्थान जहां मुजलिमों को फांसी पर चढ़ाया जाता था। विशाल किले की सुरक्षा प्रणाली में दो तरफ रक्षा खाई और 22 बुर्ज हैं। रघुनाथ राव दि्वतीय की 1838 में मृत्यु के बाद गंगाधर राव को अंग्रेजों ने झाँसी के नये राजा के रूप में स्वीकार कर लिया। गंगाधर राव एक लोकप्रिय शासक थे। वर्ष 1842 में राजा गंगाधर राव ने मणिकर्णिका ताम्बे से शादी की जिसे शादी के बाद लक्ष्‍मी बाई नाम दिया गया। कुछ समय बाद बाद लक्ष्‍मीबाई ने राज्य का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया और 1857 के संग्राम में रानी लक्ष्‍मी बाई ने झाँसी की सेना का नेतृत्व किया। अप्रैल 1858 में जनरल ह्यूज के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना ने झाँसी पर कब्जा कर लिया। रानी अपने दत्तक पुत्र के साथ घोड़े पर सवार होकर किले की प्राचीर से छलांग लगा कर किले से बाहर निकल गई। इस घटना को दर्शाता एक सूचना बोर्ड “कुदान स्थल” के नाम से किले की प्राचीर पर लगा है। वर्ष 1861 में झाँसी को ग्वालियर के महाराज जियाजी राव सिंधिया को सौंप दिया गया।
झांसी का ऐतिहासिक किला और इस से जुडी इतिहास के तथ्यों से रोमांचित होते हुए जब किले से बाहर निकले तो करीब दो बजे का समय हो गया था। भूख भी लगने लगी थी।
एक होटल पर जा कर भोजन किया। इसके बाद हमने रुख किया रानी लक्ष्मी बाई महल की ओर जो प्राचीन होते हुए भी दर्शनीय है। रानी महल दो मंजिला इमारत है, जिसकी छत सपाट है तथा इसे चौकोर आँगन के सामने बनाया गया है। आँगन के एक ओर कुआं और दूसरी और फ़व्वारा है। इस महल में छह कक्ष हैं, जिसमें प्रसिद्ध दरबार कक्ष भी शामिल है। दरबार कक्ष की दीवारों को विभिन्न वनस्पतियों और जीव-जंतुओं के चमकदार रंगों वाले चित्रों से सजाया गया है। रानी महल को अब एक ऐतिहासिक संग्रहालय में बदल दिया गया है। महल को देखना हो तो सुबह 7 से शाम के 5.30 तक ही देख सकते हैं। खास बात यह भी है की सोमवार को यह बंद रहता है और अंदर फोटो लेने पर पाबंदी है। यह महल 1857 की क्रांति का प्रमुख स्थल रहा था।
रानी महल से बाहर आ कर हमने चाय की चुस्कियों का आनंद लिया और अपनी शाम का वक्त हरियाली के बीच बने रानी लक्ष्मीबाई पार्क घूमने में बिताया। हमने देखा की यहां पर छोटे-छोटे बच्चो के लिए कई प्रकार के झूले लगे होने से बच्चों की अच्छी खासी भीड़ थी। यहां काफी समय बिता कर कुछ देर झांसी के बाजार की रात की रंगत का आनंद लिया और एक होटल पर भोजन कर हम अपने विश्राम गृह में चले गए। कुछ देर दिन भर की चर्चा के बाद अगले दिन ओरछा देखने के उत्साह के साथ सभी सो गए।
यात्रा के दूसरे दिन भगवान राजा राम की नगरी कहा जाने वाला ओरछा हमारा गंतव्य था। झांसी से मात्र 16 किलोमीटर दूरी पर स्थित ओरछा के लिए हम सुबह 8.00 बजे एक बस से रवाना हो गए। जैसे-जैसे ओरछा नजदीक आ रहा था कुछ मंदिरों और इमारतों की झलक, एक नदी और प्राकृतिक परिवेश दिखाई देने लगा। लगभग पौन घंटे बाद बस से उतर कर भगवान राम की नगरी पर अपने कदम रहते हुए हमने अपने को माग्यशाली महसूस किया। यहां एक ढाबे पर कुछ अल्पाहार कर हमने सबसे पहले राजा राम के मंदिर की और रुख किया। हम लाइन में लग गए और 20 मिनट बाद हमें राजा के रूप में भगवान राम के दर्शन हुए। हमें बताया गया कि देश का यह पहला ऐसा मंदिर है जहां राम की राजा के रूप में पूजा की जाती है। कितना भी बड़ा वीवीआईपी क्यों न हो दर्शन समय पर ही खुलते हैं। पुलिस द्वारा सुबह-शाम राजा राम को सशस्त्र सलामी दी जाती है। खास बात यह भी है की चारदीवारी में बने महल में यह मंदिर बनाया गया है। राम के राजपाठ को यहां आज भी जीवंत रूप में मानते हैं। अपनी इसी खासियत के चलते मंदिर विश्व भर में प्रसिद्ध है और मंदिर में दूर-दूर से भक्त राजा राम का सम्मान देखने और दर्शन करने आते हैं। बताया जाता है कि महाराजा मधुकरशाह ने ओरछा में रामराज की स्थापना की। हर साल मौसम परिवर्तन के साथ मंदिर में दर्शनों का समय बदल जाता है।
राजा राम मंदिर के दर्शनों के बाद हम जा पहुंचे ओरछा का किला देखने के लिए।वास्तुकला की दृष्टि से यह किला बुंदेलखंडी और मुगल स्थापत्य का मिश्रण है। किला न केवल आकर्षक है वरन वास्तु इंजीनियरिंग का अनूठा नमूना भी है। चार कोनों में खड़े विशालकाय बुर्ज और विशाल लकड़ी का द्वार किले की आभा में चार चांद लगाते हैं। राजसी निवासों में बालकनियाँ, जालीदार खिड़कियां, देवी – देवताओं के साथ विविध भित्ति चित्र देखते ही बनते हैं। महल मंडप से लगा फूलबाग किले का खूबसूरत भाग है। मुस्लिम और राजपूत कला शैलियों के मिश्रण से राजा वीर सिंह देव द्वारा बनवाये गये दुमंजिले वर्गाकार जहांगीर महल की भव्य इमारत लाल और पीले बलुआ पत्थर से निर्मित है। गुंबद, प्रवेश द्वार, कमरे, छत और गलियारे देखते ही बनते हैं। केंद्रीय प्रांगण के चारों ओर 236 कक्ष हैं जिनमें से 136 कक्ष भूमिगत हैं। यह महल अब पुरातत्व विभाग के अधीन है और यहां एक छोटा पुरातत्व संग्रहालय बना दिया गया है। पर्यटकों के लिए यहां ध्वनि और प्रकाश का रोचक शो अंग्रेजी में 7:30 बजे से 8:30 बजे तक और हिंदी में 8:45 बजे से 9:45 बजे तक आयोजित किया जाता है। महल परिसर के अन्दर स्थित शीश महल में नक्काशीदार छत वाले महाकक्ष को वर्तमान में हेरिटेज होटल में तब्दील कर दिया गया है।
16 वीं सदी के महल की खूबसूरती से साक्षात करने बाद हम सबसे ऊंचे शिखर वाले भगवान विष्णु को समर्पित चतुर्भुज मंदिर पर थे। यह मंदिर वास्तुकला का सुंदर नमूना है। इसके साथ-साथ सावन भादो नाम से अविश्वसनीय एयर कूलर स्तंभ, लक्ष्मी नारायण मंदिर, हनुमान मंदिर, कल्याण सुंदर मंदिर, पंचमुखी मंदिर एवं राधा-बिहारी मंदिर के दर्शन भी हमने किए। इतना कुछ देखने में हमें चार बज गए थे और भूख सताने लगी थी। ओरछा की हमारी यात्रा भी लगभग पूरी हो गई थी। यात्रा से गदगद होते हुए हमने एक भोजनालय पर भोजन का भरपूर लुत्फ उठाया। लगभग 6 बजे की बस पकड़ कर हम झांसी पहुंच गए। पैदल चलने से सभी थक गए थे, अगले दिन तड़के सुबह खजुराहो जाने के लिए उठना था सो निद्रा देवी की गोद में समा गए।
तीसरे दिन हम सब जल्दी उठ गए, जल्दी – जल्दी तैयार होकर चाय पी कर प्रातः 6.00 बजे रेलवे स्टेशन के सामने से जाने वाली बस में बैठ कर खजुराहो के लिए रवाना हो गए। रास्ते के नजरों का लुत्फ लेते हर करीब चार धंटे का सफर तय कर विश्व में बेमिसाल कलात्मक मंदिरों की धरती खजुराहो पर कदम रखा । मंदिरों के आसपास ही ठहरने के लिए दो कमरे लिए और अल्पाहार कर हम चल पड़े खजुराहो के मंदिरों के दर्शन करने के लिये।
सबसे पहले हम पश्चिम मंदिर समूह के मंदिरों को देखने के लिए गए। इस परिसर के एक विशाल उद्यान में ऊंचे शिखर वाले अनेक ऊंचे-ऊंचे मंदिर चबूतरों पर बने हैं। हमारी मंदिर यात्रा का पहला मंदिर था मंतगेश्वर जो सबसे प्राचीन मंदिर है। पिरामिड शैली में बने मंदिर के गर्भगृह में करीब एक मीटर व्यास का ढाई मीटर ऊंचा शिवलिंग देखते ही बनता है। इस मंदिर को 920 ई. में राजा हर्षवर्मन ने बनवाया था।
भगवान शिव के दर्शन कर हम पहुंचे समीप ही स्थित विशाल लक्ष्मण मंदिर पर। यह पंचायतन शैली में बना है जिसके चारो कोनों पर एक-एक उप मंदिर बने हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर सूर्यदेव नज़र आते हैं जो रथ पर सवार हैं। मंदिर की बाह्य दीवारों पर असंख्य मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। मूर्तियों की भाव-भंगिमाएं, सुंदरता देखते ही बनती है। तीन कतारों में प्रमुख मूर्तियों की श्रृंखला है। कुछ कतारें छोटी मूर्तियों की हैं। मध्य ताखों में देव प्रतिमाएं हैं। नृत्य, संगीत, युद्ध, शिकार आदि प्रतिमाओं में तत्कालीन जीवन के दर्शन होते हैं। अन्य मूर्तियों में विष्णु, शिव, अग्निदेव, गंधर्व, सुर-सुंदरी, देवदासी, तांत्रिक, पुरोहित, और काम कला की प्रतिमायें हैं। एक मूर्ति में नायक-नायिका द्वारा एक-दूसरे को उत्तेजित करने के लिये नख-दंत का प्रयोग कर रहे हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की त्रिमूर्ति प्रतिमा विराजित है। अंदर की दीवारों पर भी मूर्तियों का खजाना है। मंदिर के चबूतरे पर भी विविध विषयों के साथ सामूहिक मैथुन की मूर्तियां अद्भुत और अविश्वनीय हैं। मंदिर के सामने लक्ष्मी मंदिर एवं वराह मंदिर बने हैं।
मंदिर की शिल्प कला से प्रभावित हम जा पहुंचे पास में ही कंदारिया महादेव के मंदिर पर। यह मंदिर सभी मंदिरों से अलग है जो कामकला की असंख्य मूर्तियों के लिए मशहूर है। देखने में मंदिर की बनावट और अलंकरण भी अत्यंत वैभवशाली है तथा यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। मंदिर का प्रवेश द्वार 9 शाखाओं से युक्त है, जिन पर कमल पुष्प, नृत्यमय अप्सराएं तथा व्याल आदि बने हैं। सरदल पर शिव की चारमुखी प्रतिमा बनी है। इसके पास ही ब्रह्मा एवं विष्णु भी विराजमान हैं। गर्भगृह में संगमरमर का विशाल शिवलिंग स्थापित है। मंडप की छतों पर भी पाषाण कला के सुंदर अलंकरण बने हुए हैं। मंदिर की बाह्य दीवारों पर सुर-सुंदरी, नर-किन्नर, देवी-देवता व प्रेमी-युगल आदि सुंदर रूपों में अंकित हैं। बाहर दीवारों के मध्य भाग पर कुछ अनोखे मैथुन दृश्य चित्रित हैं। एक स्थान पर ऊपर से नीचे की ओर एक क्रम में बनी तीन मूर्तियां कामसूत्र की अनुकृति कही जाती हैं। इसमें रति क्रिया के आरंभ में आलिंगन व चुंबन के जरिए पूर्ण उत्तेजना प्राप्त करने का महत्व दर्शाया गया है। एक अन्य दृश्य में एक पुरुष शीर्षासन की मुद्रा में 3 स्त्रियों के साथ रतिरत नजर आता है। हमें बताया गया की विशालतम मंदिर की बाह्य दीवारों पर कुल 646 मूर्तियां हैं तो अंदर 226 मूर्तियां जड़ी हुई हैं। इतनी मूर्तियां शायद अन्य किसी मंदिर में नहीं हैं। सप्तरथ शैली में बना यह मंदिर सबसे विशाल है जो करीब 117 फुट लंबा,66 फुट चौडा एवं 117 फुट ऊंचा है। इस मंदिर का निर्माण राजा विद्याधर ने मोहम्मद गजनवी को दूसरी बार परास्त करने के बाद 1065 ई. के आसपास करवाया था। सभी मंदिरों के सामने पर्यटकों की अच्छी खासी संख्या थी। मंदिरों और मूर्तियों को कोतुक से देख रहे थे और कैमरे में कैद कर रहे थे। हमने एक जर्मनी से आए जोड़े के साथ फोटो खिंचवाया। मैंने उससे पूछा हाऊ डू यू लाइक टेम्पल्स ?, उनका उत्तर था टेम्पलस आर द बुक ऑफ कामसूत्र एंड वेरी चार्मिंग । कामसूत्र का जिक्र उनके मुंह से सुनने पर लगा कि ये लोग भी भारतीय संस्कृति से परिचय रखते हैं।
इन मंदिरों को देखने में ही तीन बज गए। भूख भी जोर से लग आई थी इसलिए बाकी के मंदिर अगले दिन देखने का तय कर हम परिसर से बाहर आ गए और एक होटल पर भरपेट भोजन का लुत्फ उठाया। पैदल चलते – चलते थकान भी हो गई थी सो होटल में जा कर कुछ देर विश्राम किया। शाम के समय आसपास घूमने , बाजार देखने और जानकारियां प्राप्त करने में व्यतीत किया। रात्रि भोजन कर हम होटल में चले गए। कुछ देर ताश खेलने में बिताया और सो गए।
अगले दिन आदत के अनुरूप मैं तडकाव में घूमने निकल गया। वापस आ कर सभी को उठाया और बाहर आ कर एक थड़ी पर चाय पी कर सबने अपना आलस्य खोला। तैयार हो कर और नाश्ता कर फिर पहुंच गए आगे के मंदिरों को देखने पार्वती के एक नवनिर्मित मंदिर पर। यह प्राचीन मंदिर खंडित हो चुका था। छतरपुर के महाराजा ने 1880 के आसपास वर्तमान मंदिर बनवाकर उसमें पार्वती की प्रतिमा की स्थापना की थी। यह मंदिर अन्य मंदिरों से भिन्न है। इस के आगे विश्वनाथ मंदिर शिव को समर्पित है। मंदिर की सीढ़ियों के आगे दो शेर और हाथी बने हैं। मंदिरों में देव प्रतिमाएँ, अष्टदिकपाल, नाग कन्याएं, अप्सराएं, राजसभा, रासलीला, विवाह, उत्सव, वीणा बजाते नायिका एवं पैर से कांटा निकलती अप्सरा आदि मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। आलों में चामुंडा, कौमारी, वैष्णवी, वराही, महेश्ववरी, नटराज आदि मूर्तियां हैं। यह मंदिर 90 फुट ऊंचा और 45 फुट चौडा है। इस मंदिर का निर्माण 1002 ई. में राजा धंगदेव द्वारा करवाया गया था। प्रमुख मंदिर के सामने चौकोर मंडप में शिव के वाहन नंदी की 6 फुट ऊँची दर्शनीय प्रतिमा है।
विश्वनाथ मंदिर के आगे चित्रगुप्त मंदिर सूर्यनारायण को समर्पित है। मंदिर की दीवारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य उमा-महेश्वर, लक्ष्मी-नारायण और विष्णु के विराट रूप में मूर्तियां भी हैं। जनजीवन की मूर्तियों में पाषाण ले जाते श्रमिकों की मूर्तियां मंदिर निर्माण के दौर को दर्शाती हैं। मुख्य प्रतिमाओं के मध्य व्याल व शार्दूल नामक पशुओं की प्रतिमाएं हैं, जो हर मंदिर पर बनी हैं। चित्रगुप्त मंदिर की दीवारों पर नायक-नायिका को आलिंगन के विभिन्न रूपों में उत्कीर्ण किया गया है। गर्भगृह में 7 घोड़ों के रथ पर सवार भगवान सूर्य की प्रतिमा विराजमान है। निकट ही हाथ में लेखनी लिए चित्रगुप्त बैठे हैं। इस से कुछ आगे जगदंबी मंदिर है। मूलत: यह मंदिर विष्णु को समर्पित था, लेकिन मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। यहां भी दीवारों पर कुछ कामकला की मूर्तियां देखने को मिलती हैं। प्रवेश द्वार पर चतुर्भुजी विष्णु गरूड़ पर आसीन नजर आते हैं। मंदिर के आलों में सरस्वती एवं लक्ष्मी की प्रतिमाएं विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। जगदंबी मंदिर के निकट ही महादेव मंदिर है। इस छोटे मंदिर का मूल भाग खंडित अवस्था में है तथा वेदी भी नष्ट हो चुकी है। प्रवेश द्वार पर एक मूर्ति में राजा चंद्रवर्मन को सिंह से लड़ते दर्शाया गया है। यह दृश्य चंदेलों का राजकीय चिह्न बन गया था। मुझे महसूस हुआ कि इन मंदिरों को केवल रतिरत मूर्तियों के संदर्भ में चर्चा करना अधूरा होगा जब कि ये मंदिर भारतीय स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं। मंदिरों का स्थापत्य इतना जादुई है की बस अपलक देखते ही रहो !
खजुराहो के प्राचीन गांव के निकट थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थित पूर्वी मंदिरों को देखने के लिए हमने साइकिल सफारी का आनंद उठाया। यहां साइकिल बहुत कम दाम पर किराए से मिल जाती हैं जब कि टैक्सी वाले 1000 रुपये तक ले लेते हैं। पूर्वी मंदिरों में 4 जैन तथा 3 हिन्दू मंदिर हैं। पहला पिरामिड शैली में बना छोटा-सा ब्रह्मा मंदिर है। ब्रह्मा की प्रतिमा के साथ यहां भगवान विष्णु और शिव भी उपस्थित हैं। मंदिर में एक शिवलिंग भी है। ब्रह्मा मंदिर से करीब 300 मीटर की दूरी पर वामन मंदिर है। यह मंदिर 11वीं सदी के उत्तरा‌र्द्ध में निर्मित माना जाता है। इस मंदिर की दीवारों पर प्रेमी युगलों के कुछ आलिंगन दृश्यों को छोड़ ज्यादातर एकल प्रतिमाएं हैं। शिव-विवाह का खूबसूरत उत्कीर्ण भी यहाँ देखने को मिलता है। वामन मंदिर से थोड़ा-सा आगे चलने पर आता है जवारी मंदिर है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में उनके बैकुंठ रूप में दर्शन होते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों की मूर्तियां में अनेक मैथुन दृश्य भी हैं। यहीं पर 4 जैन मंदिर स्थित हैं। इनमें से घंटाई मंदिर भग्न स्थिति में है। एक मंडप के रूप में दिखने वाले इस मंदिर के स्तंभों पर घंटियों का सुंदर अलंकरण है। प्रवेश द्वार पर देवी-देवताओं की प्रतिमाएं हैं जबकि गर्भगृह के द्वार पर शासन देवी चक्रेश्वरी की गरूड़ पर आरूढ़ प्रतिमा है। शेष तीनों जैन मंदिर कुछ दूर एक परिसर में स्थित हैं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है पा‌र्श्वनाथ मंदिर है जिसकी बाहरी दीवारों पर तीर्थंकर प्रतिमाएं बनी हैं। इनके साथ कुबेर, द्वारपाल, गजारूढ़ या अखारूढ़ जैन शासन देवताओं का सुंदर अंकन भी है। यहां मूर्तियों की पंक्तियों में गंधर्व, किन्नर, विद्याधर शासन देवी-देवता, यक्ष मिथुन व अप्सराएं शामिल हैं। इनमें काजल लगाती नायिका तथा शिशु पर वात्सल्य छलकाती माता की मूर्तियां मोहक हैं। मंदिर के तोरण में तीर्थंकर माता के 16 स्वप्नों का सुंदर चित्रण है और गर्भगृह में आदिनाथजी की प्रतिमाऐं हैं। मंदिर का निर्माण राजा घंगदेव के समय एक नगर सेठ ने करवाया था।
पूर्वी मंदिर के पास ही दक्षिणी मंदिरों में दूल्हादेव मंदिर शिव को समर्पित है। मंदिर के अंदर एक विशाल शिवलिंग पर शहत्रमुखी छोटे-छोटे शिवलिंग बने हैं। यह 12वीं शताब्दी में निर्मित चंदेल राजाओं की अंतिम धरोहर है। इसके बाद दूल्हादेव मंदिर से कुछ दूर चतुर्भुज मंदिर एक साधारण चबूतरे पर बना है। इस मंदिर की दीवारों पर बनी मूर्तियों में दिग्पाल, अष्टवसु, अप्सराएं और व्याल प्रमुख हैं। मंदिर के गर्भगृह में शिव की सौम्य प्रतिमा है।
यूनेस्को की विश्व विरासत में शामिल मंदिरों के दर्शन कर जब वापस लौट रहे थे तो मन में एक ही भाव था कैसे होंगे वो अनाम शिल्पी जिन्होंने ने इन मूर्तियों और स्थापत्य के इस अकल्पनीय संसार की रचना की, जिसे देखने के लिए आज पूरे विश्व के सैलानी यहां खींचे चले आते हैं और कैमरे में संजोकर ले जाते हैं अपनी यात्रा की मधुर यादें। लौट कर हमने सलकिलें जमा कराई। भूख भी लग आई थी अतः हमने एक ढाबे पर भोजन किया जो बहुत ही स्वादिष्ट था। भोजन करने के बाद हम पश्चिमी मंदिर समूह के विपरीत स्थित भारतीय पुरातत्व विभाग के संग्रहालय को देखने चले गए। यहां शैव, वैष्णव, जैन और अन्य प्रतिमाओं का विशाल संग्रह देखते ही बनता है। अच्छी तरह से इसे देख कर हमने
ट्राईबल और फॉक के राज्य संग्रहालय को देखा जिसमें जनजाति समूहों द्वारा निर्मित पक्की मिट्टी की कलाकृतियां, धातु शिल्प, लकड़ी शिल्प, पेंटिंग, आभूषण, मुखौटों और टेटुओं को दर्शाया गया है। शाम को पश्चिम मंदिर समूह परिसर में प्रकाश एवं ध्वनि कार्यक्रम प्रद्रर्शित किया जाता है जो हम किसी वजह से नहीं देख पाए, जिसका अफसोस रहा। रात खजुराओं में बीता कर हम वापस झांसी,बीना होते हुए घूमने से हल्का महसूस करते हुए कोटा लौट आए। यह यात्रा सदैव स्मृतियों में रहती है और जब भी मिलते हैं इसकी चर्चा किए बिना नहीं रहते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *