घन घमण्ड नभ गरजत घोरा…..
-डॉ. कृष्णा कुमारी
तलवंडी, कोटा ( राज.)
हर ऋतु का अपना सौन्दर्य और महत्त्व होता है। लेकिन वर्षा ऋतु कुछ अधिक ही मनभावन, अभिराम, सौन्दर्य, माधुर्य भरपूर व चित्ताकर्षक होती है। मानव,पशु- पक्षी यानि समस्त चराचर प्रकृति वर्षा ऋतु में झूम उठती है, खिल उठती है। नन्ही- नन्ही बूंदों का रेशमी परस, कोकिल की मधुर स्वर लहरी, सारंग का मनोहारी नर्तन, श्यामल मेघों का घनघोर गर्जन, दामिनी की क्षणिक दिव्यानुभूति, पुरवाई की सुरभित सुवास , पल्लव का सद्य:स्नात्य लावण्य, धरती का मखमली हरित आँचल किसके मन को नहीं लुभाता।
साथ में पर्वो की लड़ियाँ सावन के झूले, उपवन में मधुर गीतों के साथ हिण्डोला झूलती कामिनियों, वधुयें, बालायें, जगह- जगह लगते मेले, चुनरी, लहरियों में सुसज्जित नारियों, पिकनिकों का आनन्द, हास- परिहास, नदियों का उफनता यौवन, पपीहे की “पी-पी” यह सारी सौगात दामन में लेकर आती है वर्षा ऋतु । धरती का कोई भी जीव इस अव्यक्त सौन्दर्य व अनुभूति से विलग नहीं रह सकता।
परदेशी लौट- लौट कर घर आते हैं। मानव-जीवन के रोम- रोम में छलकता है इस ऋतु का सौन्दर्य व प्रेम। इस अनिवर्चनीय, अनुपम, अकथ,अद्वितीय अनुभूति से संवेदनशील कवि हृदय कैसे निःस्पृह रह सकते थे। यदि हम अपने साहित्य पर दृष्टिपात करें तो, पायेंगे कि कोई कवि वर्षा के सौन्दर्य- वर्णन करने का लोभसंवरण नहीं कर पाया है। हिन्दी ही क्या, हर भाषा में पावस का चित्रण मिलता है.
तुलसी के राम इतने धीर,प्रशांत होते हुये भी वर्षा की रिमझिम में विचलित हुये बिना नहीं रह सके। उनके श्रीमुख से
सीता -वियोग की वेदना नि:सृत हो ही उठी-
‘घन-घमण्ड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।’
साथ ही तुलसी की प्रतीकात्मक
अभिव्यंजना द्रष्टव्य है-
‘दामिनी दमक रही घन माही।
खल की प्रीत जथा थिर नाही।।
महाकवि निराला के श्रावण के मेघों सेआवृत प्रकृति का नयनाभिराम रूप देखिये-
उमड़े ऊपर नव घन-घूम-घूम अम्बर,
नीचे लहराता पवन, हरित श्याम सागर।
उड़ा वसन बहतीरे पवन तेज क्षण में,
नदी तीर श्रावण तट नीर छाये बहता।
छायावाद के प्रकृति के सुकुमार कवि सुमित्रानदन ‘पंत’ ने तो प्रकृति की वात्सल्यमयी खूबसूरत गोद में ही सृजन की प्रेरणा पाई थी। इतना सुमधर, कोमल- कान्त प्रकृति वर्णन शायद ही किसी कवि ने किया है।
देखिये सावन का मनभावन चित्रांकन –
“झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के।
छम-छम-छम गिरती बूंदे तरूओं में घन के।
चमचम बिजली चमक रही है उर में घन के।
थम-थम दिन के तम में सपने जगते मन के।।
इन्हीं का बादल- वर्णन, रमणीय कल्पना का साकार रूप हो गया है-
“फिर परियों के बच्चों से हम,
सुभग सीप के पंख पसार,
समुद्र तैरते शुचि ज्योत्स्ना में,
पकड़ इंदु के कर सुकुमार।
भक्ति रस में पगी मीरा बाई ने भी अपने विरह- भाव में सावन का मनोरम चित्रण
किया है-
“कोई कहियो रे हरि आवन की।
सावन में उमग्यो मेरो मनवा
भनक सुनी हरि आवन की।’
मैथिली शरण के “साकेत” की नायिका, ‘उर्मिला’ जानती है कि उसके प्रिय चौदह वर्षो बाद ही आयेंगे। फिर भी वह बादलों से अपनी कामना व्यक्त करती है-
‘आज भीगते ही घर पहुँचे,
जन जन के जन, बरसों।
महाकवि कालीदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य “मेघदूत” में बड़े ही लालित्य पूर्ण ढंग से मेघ गर्जना, वियोग की पीर का चित्रण
किया है। समग्र काव्य में जैसा कि नाम से ही ध्वनित है, विरही यक्ष बादलों को ही दूत बनाकर अपना प्रणय संदेश अपनी प्रिया तक पहुंचाता है। वर्षा काल में मेघों को देखकरवियोगिनी पत्नियाँ आश्वस्त हो जाती हैं कि अब उनके प्रियजन अवश्य घर लौटेंगे। कुछ ऐसी ही मन -भावन अभिव्यंजना कवि ने की है –
‘त्वामारूढ, पवनदवीमुद्गृही ताल कान्ताः,
प्रक्षिष्यन्ते पथिक वनिता:प्रत्ययादाश्वसंत्य: ।’
कः सन्नद्धे विरह विधुरां त्वय्युपेक्षेते जायां,
न स्यादन्योsप्यहदमिव जनो यःपराधीनवृत्तिः ।।
अर्थात आकाश में उमड़े हुये तुमको प्रवासी पथिकों
की पत्नियां विश्वास से धैर्य धारण करती हुई, अलकों के अग्रभाग को ऊपर उठाये तुम्हें देखेंगी। तुम्हारे उमड़े हुये होने पर
विरह- व्याकुल पत्नी की कौन उपेक्षा कर सकता है यदि मेरे जैसा पराधीन न हो तो।
जब मूसलाधार वर्षा हो रही हो, सखियां कजली खेल रही हो और पपीहा पीऊ -पीऊ की रट लगा रहा हो, तब विरहण के हृदय में कैसे शूल उत्पन्न होते हैं, ऐसा ही भावभीना वर्णन
“बीसल देव रासो” में हुआ है –
‘श्रावण बरसई छइ छाड़ीय धार,
प्रीय वीण खेलइ कवण आधार।
सरवीय ते खेलइ काजली,
चीडिय कमेड़ी मडिय आस ।
पपीहो पीऊ, पीऊ, करई,
सखी असल सलॉवर मो श्रावण मास
-पद १८ सर्ग ३१
कवि नरपति नाल्ह ने प्रेमाधिक्य का अति रोमांचकारी चित्रण किया है साथ ही मादक मास भादों में उत्पन्न वेदना को
देखिये-
‘भद्रपद सवि सर भरया,
अंक निरन्तर नीर।
अह निश अकेलड़ी डरुं ,
धीरन दहि को धीर।।
गेग जमुन परि नयनड़ा,
बहइ निरन्तरइ पूरि।।’
वर्षा हो पर मंगलकारी हो। नाअनावृष्टि ना अतिवृष्टि हो। ताकि जग में सन्तुलन बना रहे। कुछ ऐसी हीअभिव्यक्ति राष्ट्रकवि माखन लाल चतुर्वेदी ने की है-
“बदरिया थम थम कर झर री।
सागर पर मत झरे अभागिन
गागर को भर री।
तू खोने से नहीं बावरी
पाने से डर री।
बदरिया थम-थम झरकर झर री।
ऐसे ही अनगिनत वर्षा ऋतु के आल्लाहकारी, मनोमुग्धकारी रूपों के अंकन से आप्लावित है हमारा हिन्दी साहित्य |